तनहाई

चलते चलते जहाँ  ये बदल गया
ज़मीन थी  खाई बन  गई,
महफिलें तनहाई बन गई।
पर अभी भी धड़कने चल रही,
अकेले में  ही सिसक रही
और ढून्ढ रही एक किनारा
एक पल जिन्दगी से भरा।

रोशनी चमक रही थी  चारों तरफ ,
चेहरे  भी न देख पा रहा था।
ऑंखें बंद कर लूँ
तो अपने भगवान को भी ना याद कर पा  रहा था।
कैसा ये तनहाई का शहर !
चलते चलते ये शहर बदल गया ,
तनहाई आदतों  में  बदल  गई
बेचैनियाँ नशे में बदल गई।  

आज भी वही दिल हुँ
पर तनहाई के रेगिस्तान में खोया
एक किनारा मिल जाये
सारे रंग फिर से बदल जाए।।


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