मन की गठरी

मन की  गठरी लिए साँझ  सवेरे
कल की बातें यादें संग लिए
इक्कठा की  है कुछ बातें कुछ  दिलासे
कुछ डर की गाँठे ,कुछ  उम्मीदों के धागे
सब  बंद है इस मन की गठरी में
हवाएं रुके तो  खोलूँगा सोचा है
वरना सब बह जायेगा
सुकून रह जयेगा
पर वो सुकून भरी रात से भाग रहा
बेवजह ये गठरी को लाद रहा
इक्कठा कर मुस्कुराहटें , मीठी यादें
न डर की गाँठे न दिलासे
खोलेगा जब जब ये गठरी मेहेकी मुस्कुराहटें
हवाएँ चलेंगी फैलेंगी मुस्कुराहटें
चल पड़ेगा फिर से तू बादलों के शहर की डगर पर
मिलेंगे फिर कहीं किसी मोड़ पर
नए दिलासे नया डर
मत घबराना तू  ,मासूम सा मन  है
माटी  का तू तेरा तन  है
मत घबराना तू  , मासूम सा ये मन है।

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